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मसूरिका या शीतला रोग-डॉ.सत्येन्द्र तोमर

>> Thursday, August 19, 2010


चरक के अनुसार जो पीडिका पित्त तथा कफ के प्रकोप से सारे शरीर में होती है और जिसका आकार मसूर के दाने के समान होता है उसे मसूरिका या चेचक भी कहते हैं। दूषित रक्त एवं दूषित पित्त से होने वाला यह भयंकर रोग अधिकतर बच्चों में होता है। प्रायः बसन्त एवं ग्रीष्म ऋतु में महामारी के रूप में फैलता है।
यह रोग निम्न कारणों से होता है-
1. कटु अम्ल, लवण तथा क्षार का अधिक सेवन करने से। 
2. विरूद्ध आहार से। 
3. दूषित भोजन से।  
4. दूषित वायु तथा जल के सेवन करने से होता है। 
5. ग्रहों की कुदृष्टि से भी हो जाता है।
मसूरिका के लक्षण
मसूरिका या शीतला में निम्नलिखित लक्षण दृष्टिगोचर होने लगते हैं-
1. बुखार आता है। 
2. शरीर में पीड़ा होती है। 
3. भ्रम की स्थिति रहती है। 
4. खुजली होती है। 
5. त्वचा में सूजन आ जाती है। 
6. नेत्र लाल हो जाते हैं।
इसके कुछ विशिष्ट लक्षण भी होते हैं जो इस प्रकार हैं-                        
1. सर्वप्रथम सिर में दर्द, पीठ में दर्द और शीत के साथ 102 से 104 डिग्री फारनहाईट तक ज्वर होता है। 
2. मिचली या वमन होता है। 
3. आक्षेप व आंखों में लालिमा आ जाती है। 
4. तीसरे या चौथे दिन मस्तिष्क तथा कलाई पर मूंग, मसूर या उड़द के आकार के विस्फोट या फफोले(मसूरिका) निकलते हैं जोकि चौबीस घन्टे में मुख, वक्ष,पीठ व निम्न शाखाओं में फैलकर सारे शरीर में भर जाते हैं। 
5. मसूरिका निकल आने पर ज्वर कुछ कम हो जाता है।
6. पांचवे या छठे दिन उसमें मवाद पड़ने लगती है और ज्वर पुनः बढ़ने लगता है। 
7. यदि विस्फोट अधिक संख्या में हों तो मिलकर घाव के समान दिखाई देते हैं। तीव्र प्रकार में तो आन्त्रा नलिका, श्वास नलिका एवं स्वर यन्त्र में भी विस्फोट निकलते हैं और त्वचा पर स्थायी दाग उत्पन्न हो जाते हैं। पहले सप्ताह में मसूरिका सारे शरीर में निकल आती है। दूसरे सप्ताह में उनका पाक हो जाता है और तीसरे सप्ताह में सूखकर स्वयं झड़ने लगती है।
रोग के प्रकार
आयुर्वेद में मसूरिका के पांच प्रकार बताए गए हैं-
1. वातज,            
2. पित्तज, 
3. कफज, 
4. रक्तज एवं 
5. सन्निपातज।
वातज में विस्फोट रुक्ष, कठिन, देर से पकने वाले, तीव्र वेदना से युक्त, कम्पन्न, बेचैनी आदि लक्षण पाए जाते हैं। पित्तज में विस्फोट तीव्र जलन व पीड़ा युक्त, तीव्र ज्वर, दाह, तृष्णा, अतिसार, अरुचि, मखपाक, आंखों में लाली आदि लक्षण दिखाई देते हैं। कफज में विस्फोट चिकने, मोटे, देीर से पकने वाले, मन्द वेदना युक्त, खुजली युक्त, लालास्राव अरुचि आदि लक्षण दिखाई पड़ते हैं। रक्तज में पित्तज के लक्षण अधिक दिखाई पड़ते हैं और साथ में रक्त भी रिसता है। सन्निपातज में विस्फोट नीले, मध्य भा निम्न, तीव्र पीड़ा युक्त, दाह, प्रलाप आदि लक्षण दिखाई पड़ते हैं।
आधुनिक चिकित्सा शास्त्रा में इसके चार भेद मिलते हैं-
1. भयंकर जिसके दो भेद होते हैं-विकीर्ण और संसक्त। 
2. रक्त से युक्त अर्थात्‌ रक्तज जिसमें मुख, नाक व नेत्रा एवं विस्फोट आदि से रक्त रिसता है। यह प्रकार असाध्य है। 
3. सौम्य जोकि प्रायः वयस्कों व टीका लगे व्यक्तियों में होता है। पाकावस्था का ज्वर इसमें नहीं होता है।                  
4. गर्भावस्था की मसूरिका में प्रायः रक्त रिसता है व संसक्त होती है। इसमें  गर्भ का स्राव तक हो जाता है।
मसूरिका की चिकित्सा
इसमें अधिक औषधियों से हानि होती है। पित्त वर्धक पदार्थों का सेवन नहीं करना चाहिए। प्रथम रोगी को वमन करानी चाहिए। यदि रोगी बलवान हो तो मुलेठी के क्वाथ के साथ मृदु विरेचन देना चाहिए। इससे रोग का वेग धीमा हो जाता है। रोग की तीव्र अवस्था में वमन-विरेचन नहीं देना चाहिए। बासी जल में शहद मिलाकर पिलाने से रोगी का दाह नष्ट हो जाता है और मसूरिका के दाने भी शीघ्र शान्त हो जाते हैं। रोगी को केवल गोदुग्ध, अंगूर, अनार, मौसमी आदि मीठे फलों के रस के पथ्य पर रखें।
औषधि प्रयोग
प्रथम सप्ताह में स्वर्ण माक्षिक भस्म 120 मिग्रा. सुबह-शाम को अनार की छाल के क्वाथ से दें। एलाद्यरिष्ट 20एम.एल. सुबह-शाम भोजन के बाद जल से दें। 
प्रथम सप्ताह के बाद निम्न औषधि का प्रयोग करना चाहिए-       
1. इन्दुकलावटी 120 मिग्रा. सुबह-शाम  जल से लें। 
2. निम्बादि क्वाथ 50एमएल. प्रातः एक बार लें। 
3. हरिद्रा चूर्ण एक ग्राम सुबह-शाम करेली के पत्तों के रस से दें। 
4. कदली बीज का चूर्ण एक या दो माशा पानी के साथ देना चाहिए।

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