उपहार
>> Saturday, November 5, 2016
एक विप्र का मित्र किसी महात्मा का शिष्य बन गया। विप्र को यह बात अच्छी
नहीं लगी। वह उस महात्मा के पास जाकर उनको गालियां देने लगा। महात्मा
शान्त भाव से चुपचाप सुनते रहे। विप्र गालियां देते-देते थककर चुप हो गया।
विप्र को शान्त देखकर महात्मा ने उससे पूछा-'बन्धुवर! क्या तुम्हारे घर कभी अतिथि आते हैं?'
विप्र बोला-'हां आते हैं।'
महात्मा बोले-'तो तुम उन्हें खाने-पीने की वस्तुएं तो देते होगे।'
विप्र बोला-'अवश्य देते हैं!'
उसकी बात सुनकर महात्मा बोले-'यदि वे तुम्हारी दी वस्तुएं अतिथि न ले तो क्या होता है?'
विप्र बोला-'यह भी पूछने की बात है, अतिथि न ले तो हमारी वस्तुएं घर में ही रह जाती हैं।'
महात्मा मुस्कराकर बोले-'इसी तरह जो गालियां तुमने मुझे दीं वो मैंने ली नहीं। यदि ली होतीं तो मुझे गुस्सा आता और बदले में गालियां देता। मैं चुप रहा इसलिए मैंने तुम्हारी गालियां स्वीकार नहीं करीं। तुम्हारा उपहार तुम्हारे पास ही रह गया।'
विप्र लज्जित होकर महात्मा का शिष्य बन गया।
विप्र बोला-'हां आते हैं।'
महात्मा बोले-'तो तुम उन्हें खाने-पीने की वस्तुएं तो देते होगे।'
विप्र बोला-'अवश्य देते हैं!'
उसकी बात सुनकर महात्मा बोले-'यदि वे तुम्हारी दी वस्तुएं अतिथि न ले तो क्या होता है?'
विप्र बोला-'यह भी पूछने की बात है, अतिथि न ले तो हमारी वस्तुएं घर में ही रह जाती हैं।'
महात्मा मुस्कराकर बोले-'इसी तरह जो गालियां तुमने मुझे दीं वो मैंने ली नहीं। यदि ली होतीं तो मुझे गुस्सा आता और बदले में गालियां देता। मैं चुप रहा इसलिए मैंने तुम्हारी गालियां स्वीकार नहीं करीं। तुम्हारा उपहार तुम्हारे पास ही रह गया।'
विप्र लज्जित होकर महात्मा का शिष्य बन गया।
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