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सूर्य व्रत से सन्तान प्राप्ति की कथा -श्रीमती लक्ष्मी पुरी

>> Thursday, June 10, 2010


    द्वापर युग के समय सोलह कलाओं से पूर्ण श्रीकृष्ण ने एक समय अपनी बुआ पांडु की पत्नी कुंती के आश्रम काम्यवन में पहुंच गए। उस समय पांडव कुंती व द्रौपदी सहित वनवास का समय व्यतीत कर रहे थे।
कृष्ण जी अपनी बुआ कुंती से बोले-मैं आपके पांचों पुत्रों को वनवासी वेश में देखकर दुःखी हूँ। मुझे सदैव इस बात का भय रहता है कि पापी दुर्योधन तुम लोगों के ऊपर कोई आघात न कर दे। इन समस्त कष्ट व विपत्ति से मुक्ति के लिए मैं आप सबको सूर्य आराधना करने का अनुग्रह करता हूँ। इसका कारण यह है कि सूर्यदेव ही सभी जीवों के नियंता तथा प्राण हैं उनके तेज से ही जीवों का उद्धार होता है।
कृष्ण जी ने उन्हें बतलाया कि एक समय भगवान्‌ शंकर जी से पार्वती जी से कहा-हे पार्वती! यदि आप इस बात का ज्ञान प्राप्त करना चाहती हैं तो मथुरा पुरी में चली जाएं वहां सूर्य की आत्मजा यमुना जी की धारा प्रवाहित होती है। यमुना के तट पर ऋषि-मुनि महर्षि आदि निरंतर तपस्या में मग्न रहते हैं।
संहार कर्ता शिवजी की आज्ञा को प्राप्त कर पार्वती जी यमुना के तट की ओर चल पड़ी। कुछ दूर जाने पर उन्हें विलाप करती एक स्त्री दिखाई पड़ी। जब पार्वती जी ने उससे पूछा कि तुम कौन हो? तब उसने पार्वती जी को बताया कि मैं कुसुमवती हूँ। मेरा निवास कुसुमावर वन के मध्य है। विवाह होने के कई वर्षों के पश्चात भी जब मुझे कोई पुत्र नहीं हुआ तो मेरे पतिदेव बसन्त ने मेरा परित्याग कर दिया इस प्रकार आज मैं पति से विमुख एवं निराश्रिता हो गई हूँ।
अब पार्वती जी के साथ वह स्त्री कुसुमवती आगे चली, इतने में ही उन्हें विलाप करती हुई एक दूसरी स्त्री मिली। उसने उन दोनों को बताया कि मेरा नाम गंगा है। मेरे पति महारााधिराज शांतनु ने पुत्रों के जीवित न रहने के कारण मुझे अत्यधिक अपमानित किया है। जिसे मैं दुःखी होकर अपने घर को छोड़कर चली आयी हूँ।
थोड़ा आगे बढ़ी तो मधुबन के समीप मांझी नाम की एक और स्त्री मिली जो पति के समस्त वैभव का नाश होने के कारण गृह से परित्याग कर दी गई।
इसके अनन्तर थोड़ा आगे जाने पर कुमुदबन में कुमदा नामक एक और स्त्री से भेंट हुई। उस स्त्री ने बताया कि मेरे पति को राजा ने बंदी बना लिया है। इस कारण मैं व्याकुल होकर रो रही हूँ।
उन सभी स्त्रियों को साथ लेकर पार्वती जी यमुना नदी के तट पर जा पहुंची। उस तट पर लोगों के द्वारा पूजनोत्सव देखकर पार्वती जी ने ऋषि पत्नियों से प्रश्न पूछा-÷आप लोग यहां किस देवता की आराधना कर रही हैं तथा इसका क्या विधान है?'
पार्वती जी के प्रश्न को सुनकर एक ऋषि पत्नी बोली-यह आराधना संसार का कल्याण करने वाले भगवान्‌ सूर्यनारायण का व्रत है। जो सभी नर व नारी के मनोरथों को पूर्ण करते हैं। इस व्रत से अभीष्ट की सिद्धि एवं समस्त मनोरथ पूर्ण होते हैं। यदि आप भी कोई वरदान सूर्य देवता से प्राप्त करना चाहती हैं तो इस व्रत को करके निःसन्देह प्राप्त कर सकती हैं।
ऋषि पत्नी की ऐसी बातें सुनकर पार्वती जी अत्यन्त प्रसन्न हुईं तथा उन स्त्रियों से सूर्यदेव के व्रत का विधान तथा फल की जानकारी प्राप्त करके भगवान शंकर जी के पास कैलाश पर्वत लौट आयीं।
वहां आने के पश्चात्‌ पार्वती जी ने विधि-विधान से इस व्रत को करके ही समस्त विनों के नाशक, एक दंत, अग्र पूजा के  अधिकारी गणेश जी को पुत्र के रूप में प्राप्त किया। वह व्रत विधि इस प्रकार है-रविवार को प्रातःकाल उठकर नित्य कर्मों से निवृत्त होकर स्वच्छ वस्त्र धारण करके। पूजन स्थल को गाय के गोबर से लीपकर सूर्य देव की प्रतिमा के समक्ष धूप व दीप जलाएं और सूर्य के तान्त्रिक मन्त्रा का 21 बार जाप करें। यह मन्त्र इस प्रकार है-ऊँ ह्रीं घृणिः सूर्याय नमः। ऊँ सूर्याय नमः। तदोपरान्त रविवार व्रत की कथा पढ़ें। दिन में एक बार भोजन करें तथा भोजन से पूर्व सूर्यदेव को भोग लगाएं। इस व्रत को 12 रविवार लगातार करना चाहिए। व्रत का पालन करने से मानसिक क्लेशों से मुक्ति मिलती है तथा हृदय को शान्ति प्राप्त होती है। रोग दूर होते हैं। सन्तान की प्राप्ति होती है। निर्धनों को धनलाभ होता है। सूर्य देव की उपासना से समस्त मनोकामनाओं की पूर्ति होती है तथा मोक्ष की प्राप्ति होती है।

1 comments:

Jaiprabha January 19, 2013 at 2:16 PM  

Is article ke liye bahut-bahut dhanyawad. Kripya batayen ki is vrat ko kis month se start karna chahiye.

आगुन्‍तक

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