यह ब्‍लॉग आपके लिए है।

स्‍वागत् है!

आपका इस ब्‍लॉग पर स्‍वागत है! यह ब्‍लॉग ज्‍योतिष, वास्‍तु एवं गूढ वि़द्याओं को समर्पित है। इसमें आपकी रुचि है तो यह आपका अपना ब्‍लॉग है। ज्ञानवर्धन के साथ साथ टिप्‍पणी देना न भूलें, यही हमारे परिश्रम का प्रतिफल है। आपके विचारों एवं सुझावों का स्‍वागत है।

श्री सत्यनारायण कथा का सार तत्त्व -आर. एस. वर्मा(ज्योतिष रत्न)

>> Monday, June 21, 2010


एक बार सृष्टिपालक श्रीविष्णु जी से महर्षि नारद ने मनुष्यों के कष्ट-क्लेश से मुक्ति व परस्पर प्रीति हेतु सरल व सारगर्भित उपाय जानने का अनुरोध किया। तब सत्यनारायण व्रत कथा विष्णु जी द्वारा बतायी गई थी। सत्यनारायण स्वयंभू होने के साथ निराकार व साकार रूप मे कण-कण में विद्यमान हैं। मन में सत्‌ मार्ग पर चलने का व्रत(प्रतिज्ञा) धारण कर उसके अनुसरण द्वारा ईश्वर को प्राप्त करना है। 
इस व्रतकथा के सन्दर्भ में शान्तनु भिखारी दुःखों से विचलित होकर संत-शरण में जाकर प्रासाद ग्रहण कर मनन व्रत करके 
मोक्ष को प्राप्त हुए। अन्य प्रकरण में लकड़हारे ने सन्त द्वारा ईश्वर के वर्णन को सुना, भावों को समझा और व्रत किया और फलस्वरूप बैकुण्ठ गए। अन्य कथा में एक व्यापारी की धर्मपत्नी ने पड़ोस में हो रही कथा को सुना, समझा और पति से यह अनुष्ठान कराने का अनुग्रह किया तो पति ने शिशु-जन्म पर कराने को कहा। पुत्र-प्राप्ति पर पत्नी द्वारा स्मरण कराने पर फिर टाल गया और पुत्र के विवाह पर करने को कहा। फलतः व्रत न कराने के कारण वह नाना प्राकर के कष्टों में फंस गया और अर्जित धन चोर ले गए व खुद राजा द्वारा कारावास में डाल दिया गया। तब पत्नी द्वारा भूल सुधार के लिए व्रत का अनुष्ठान किया तो व्यापारी ने पुनः सुख-शान्ति पायी और आजीवन कथा का अनुसरण करता रहा। अन्य कथा में राजा प्रजा का निरीक्षण करने श्रमिक बस्ती गए जहां कथा का आयोजन हो रहा था। पर उन्होंने अहंकार वश देव-प्रसाद का तिरस्कार किया। कुछ समय बाद राज्य पर आक्रमण हुआ व राज्य का हरण हो गया। बाद में भूल सुधार कर व्रत किया तो मोक्ष की प्राप्ति हुई।
अतः श्रीसत्यनारायण व्रत कथा द्वारा समाज को सत्‌ रूपी नारायण का बोध कराने के लिए भय की सृष्टि रचाकर भक्त बनाने की प्रक्रिया अपनायी गई है। सत्‌ रूपी नारायण के भाव को जाग्रत करने हेतु यह शिक्षा दी गई है कि बाधाओं के बाद भी सत्‌ पर अडिग रहना है। दूसरे ज्ञानीजनों का अनादर न करो, चाहे आपने उन्हें उनका पारिश्रमिक भी दे दिया हो, नहीं तो श्राप प्राप्त करोगे। तीसरा जैसा आचरण अपने लिए चाहते हो वैसा दूसरों के साथ करो, वरना राजा सदृश अभिशप्त होना पड़ेगा। 
नारायण रूपी परमात्मा के दर्शन के लिए दिव्य दृष्टि का होना आवश्यक है, जोकि सत्‌ है। 
पंचकर्म में स्थित होकर कर्म करने पर ही कोई सत्यव्रत बनता है। 
ध्यान रहे कि छोटा व बड़ा काई कर्म नहीं है, यदि परमात्मा की सेवा मानकर चलें। 
शोषण करने वाला ही शोषित होता है। 
स्वयंभू परमात्मा को इस जगत्‌ के कण-कण में इस प्रकार देखना कि हम स्वयं भी व्यष्टि प्रभावी हो जाएं।
सत्‌ चित आनन्द की तरह सोलह कला(योग्यता) को प्राप्त करो, उन्हें प्राप्त करने का निरन्तर प्रयास करते रहना चाहिए।
वस्तुतः श्रीसत्यनारायण कथा का सार तत्त्व व ध्येय यही है कि वाणी, सच्चिदानन्द सत्‌-सार (आत्मा) व चित्त, अन्तकरणः, आनन्द, सुख का प्रत्यक्ष अनुभव कराना है।
    यह सब को ज्ञात है कि सतोगुणी मनुष्य में ही अनेक दिव्य गुण जैसे सन्तोष, धैर्य, प्रियता, विनम्रता, एकत्व की भावना, आत्मरस आदि होते हैं। प्राणी मात्र का इस स्थिति में स्थित होना ही कल्याण प्राप्ति को निमन्त्रण देना है।

0 comments:

आगुन्‍तक

  © Blogger templates Palm by Ourblogtemplates.com 2008

Back to TOP