लकवा प्रदाता शनि -रतन लाल शर्मा
>> Friday, August 27, 2010
एक जातक जिसका जन्म लालसोट में दिनांक 6.8.1937 को प्रातः 6बजकर 56मिनट पर हुआ था। इसकी
कुण्डली इस प्रकार है-
इस जातक का सम्पूर्ण जीवन संघर्षमयी रहा एवं शरीर से अस्वस्थ ही रहे। एक पीड़ा ने पीछा छोड़ा नहीं कि दूसरी पीड़ा पीछे लग गयी। इनकी कुण्डली का विश्लेषण इस प्रकार है-
कुण्डली में राहु नीच राशि में स्थित हैं और इस पर नीच के केतु एवं मंगल का प्रभाव भी है। केतु की दृष्टि है और मंगल साथ में युति बनाए हुए है। राहु की दशा 21.5.2008 से 21.5.2026 तक है।
इस जातक को 26.11.2008 को प्रातः 7 बजे पैरालाइसिस अर्थात् लकवा हुआ। शरीर का दायां अंग शून्य हो गया। वर्तमान में 25प्रतिशत तक सुधार हुआ है।
ज्योतिष की दृष्टि से विश्लेषण करें तो इस रोग में मुख्य भूमिका निभाने वाला ग्रह शनि होता है और जब राहु के साथ अन्य ग्रहों का साथ मिल जाए तो फल देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जब जातक को यह अटैक पड़ा तो उस पर राहु महादशा में राहु अन्तर में गुरु प्रत्यन्तर में बुध सूक्ष्म में केतु की प्राण दशा चल रही थी। पैरालाइसिस रोग में मुख्य भूमिका शनि के अलावा बुध की भी होती है। नर्वस सिस्टम के विकास से यह रोग होता है। राहु नीच राशि में है और अशुभ ग्रह मंगल व केतु से दृष्ट हैं। गुरु अष्टमेश भी है और लग्न से 22वें द्रेष्काण का स्वामी भी है जो अशुभ है। शनि षष्ठेश और सप्तमेश होकर अष्टम में स्थित है और दसवें, दूसरे व तीसरे भाव पर दृष्टि डालकर केतु और गुरु ग्रह को अशुभ कर रहा है। इस कुंडली में बुध मारकेश भी है और त्रिषडायेश का स्वामी भी है। इन ग्रहों ने जातक को अशुभ प्रभाव ही दिया और लकवे के शिकार हो गए। 72वें वर्ष में यह कष्ट आया तो यह वर्ष सुदर्शन पद्धति से बारहवें भाव में पड़ता है जिसका स्वामी द्वादश भाव में ही सूर्य के साथ स्थित होकर राहु से दृष्ट है।
नवांश कुंडली देखें तो ज्ञात होता है कि शनि नवांश कुंडली में नीच का है और शुक्र-गुरु, लग्न एवं चौथे भाव स्थित केतु पर दृष्टि डालता है। सूर्य व राहु दसवें भाव में युति बनाए हुए हैं और सुखेश अष्टम भाव में मंगल से दृष्ट है। बुध की मंगल के साथ पंचम भाव में युति है। कहने का तात्पर्य यह है कि दशा स्वामी नवांश कुंडली में भी पाप प्रभाव में है जिस कारण यह कष्ट भोगना पड़ा।
जातक के संघर्षमयी जीवन के लिए कुंडली के अन्य ग्रहयोग भी इस प्रकार प्रभावित कर रहे हैं।
लग्न में स्थिर राशि का होना और लग्नेश का नवांश कुंडली में राहु के साथ दसवें भाव में युति बनाना संघर्ष का द्योतक है। यह तो सभी जानते हैं कि लग्नेश यदि द्वितीय या त्रिक भाव में स्थित हो तो जातक शारीरिक रूप से अस्वस्थ रहता है। वैसे भी जन्म कुंडली में सूर्य बारहवें भाव में चन्द्र के साथ स्थित है अर्थात् शरीर स्थान निर्बल है।
कुंडली का अष्टमेश, अष्टम स्थित ग्रह, 22वां द्रेष्काण गुरु, मारक एवं त्रिक व त्रिषडाय दशाओं का जीवन में बार-बार आना भी एक कारण है। नवांश कुंडली में भी मुख्य ग्रह निर्बल हैं। त्रिषडायेश कष्टकारी होते हैं। नीच के राहु की लग्नेश पर पूर्ण दृष्टि भी कष्ट देती है।
ग्रहस्थिति से स्पष्ट होता है कि जातक की दशाएं जीवन के शेष आयु में स्वस्थता प्रदान नहीं करेगी। स्वस्थ जीवन हेतु लग्नेश् का बली होना एवं पाप प्रभाव से मुक्त होना आवश्यक है, जोकि इस जातक की कुंडली में नहीं है।
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