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कर्मयोगी बनें !

>> Tuesday, September 13, 2016

 
सफलता चाहिए तो कर्मयोगी बनना आवश्यक है। संसार रूपी रंगमच में कर्मयोग द्वारा ही सफलता मिलती है। गीता में कहा है-योगः कर्मसु कौशलम्‌। स्पष्ट है कि कर्मयोगी कार्यकुशल होता है। यह भी कह सकते हो कर्म के योग से कुशलता प्राप्त होती है।
इसी प्रकार वेद कथन है कि कुर्वन्नेवेह कर्माण जिजीविषेत्‌ शतं समाः। स्पष्ट है कि कर्म करते हुए सौ वर्ष तक जीवित रहो।  
कर्म के बिना कोई कुछ नहीं कर सकता है। कर्म के द्वारा ही व्यक्ति शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक उन्नति कर सकता है।
अकर्मण्यता व आलस्य व्यक्ति के लिए विष सदृश हैं। 
गीता में श्रीकृष्ण जी का कहना है-
कर्मण्ये वाधिकारस्ते,    माफलेषुकदाचन।
माकर्मफलहेतुर्भू   मास्तेसंगोस्त्वकर्मणि॥
    
अर्थात्‌ मनुष्य को मात्र कर्म करने का अधिकार है, फल पाने का अधिकार नहीं। अतः उसे फल की कामना न करनी चाहिए। निज कर्मों को फल का हेतु मत समझो।  सुकर्मों या कुकर्मों की पहचान ईश्वर को ही है। वही न्याय की तराजू में तोलकर फल प्रदान करता है। अकर्मण्यता से बचना चाहिए। आलस्य त्याग कर कर्तव्य बुद्धि से कर्म में प्रविष्ट होना चाहिए।  
ज्ञान प्राप्त करने या दूसरों से सहयोग की अपेक्षा करके समय व्यतीत करने से जीवन में कदापि उन्नति नहीं होती है। वास्तव में उन्नति कर्म प्रधान है जो कर्म में संलग्न होता है वह अवश्य उन्नति करता है। जो पूर्ण समर्पण भाव से विचारों को कार्य रूप में परिवर्तित कर लो। जब तक एक विचार या लक्ष्य को क्रियात्मक रूप प्रदान करके प्राप्त नहीं कर लोगे तब तक दूसरा विचार या लक्ष्य नहीं बनाना चाहिए। एक विचार को कार्य रूप में परिवर्तित करके उसे सम्पूर्णता प्रदान करने से उसकी परिणति होती है और फिर अन्य विचार के साथ यही प्रक्रिया दोहरानी चाहिए।
जो कर्मयोगी होते हैं वे अपने विचार को अन्तः में छिपाए नहीं रखते हैं वे तो उसे क्रियात्मक रूप प्रदान करके मूर्तिमान करने के लिए पूर्ण समर्पण भाव से आलस्य त्याज्य कर निरन्तर कार्य में संलग्न रहते हैं।  फलतः इनके कर्म ही समाज में परिवर्तन लाते हैं। कर्म के बिना विचार कभी भी अमरता प्राप्त नहीं कर पाते हैं। जगत्‌ में जो कुछ भी नए शोध कार्य हो रहे हैं वे सब इन कर्मयोगियों की देन है। संसार का परिवर्तन कर्मयोगियों की देन हैं। यदि ये भी हमारी तरह एक लकीर के फकीर की जिन्दगी जिएं तो नए शोध व नए परिवर्तन कदापि न हो पाएंगे। ऐसे में तो जगत्‌ का विकास ही रुक जाएगा।
सक्रिय विचारधारा ही जीवन में उन्नति लाती है। विचार व कर्म के उचित सामंजस्य से ही व्यक्ति को अपना लक्ष्य प्राप्त होता है। आलस्य, अकर्मण्य, चंचलता, व्यग्रता एवं बातूनीपन उन्नति पथ में बाधक बन सकते हैं। इन सबसे बचना आवश्यक है।
दूसरों की जिस सामर्थ्य व प्रतिभा को देखकर आश्चर्य होता है वे सब बीज सदृश आपके भीतर भी व्याप्त है। जगत्‌ में ऐसा कोई सा कार्य नहीं है जिसे आप सम्पादित न कर पाओ। बस इतना करना है कि तुम अन्तः शक्तियों से जिसकी आकांक्षा करोगे तो वो अवश्य मिलेगी। जगत्‌ एक कामधेनु गाय सदृश है जिससे जो मांगोगे वो मिलेगा। लेकिन यह सब तब होगा जब तुम एकाग्रचित्‍त होकर सुविचारों को कार्य रूप में प्रकट करना सीख लोगे। निज शक्ति को इष्ट कार्य में लगाने से अभूतपूर्व सफलता अवश्य मिलती है। कर्म करो और कर्म में निरन्तर संलग्न रहो। निजकर्म में भावनाओं का समावेश करोगे तो ईश्वर सहायक हो जाएगा। जो कर्म साधन में प्रवृत्‍त्‍ा होगा वह कार्य-सिद्धि हेतु अवश्य आकाश व पाताल एक करेगा।
विचार-कर्म के उचित सामंजस्य से ही व्यक्ति को निज ध्येय प्राप्त होता है। आपको तो मात्र इतना संकल्प करना है-
  1. कदापि कथनी व करनी में अन्तर नहीं रखूंगा। 
  2. सदैव अपने सबल विचारों को कर्म में प्रकट करूंगा। 
  3. निरन्तर सक्रिय विचार ही जीवन निर्माण करते हैं। 
विचारों को मूर्त रूप करने के लिए अनन्त उत्साह और तेज सहित निरन्तर कर्म में संलग्न रहोगे तो तुम अवश्य कर्मयोगी बनोगे। बीज से पौधा बनने की प्रक्रिया ही उसे कर्मयोगी बनाती है। इसी प्रकार व्‍यक्ति को विचार से ध्‍येय बनाकर उसे पाने के लिए किए गए क्रियात्‍मक प्रयास या कर्म ही उसे कर्मयोगी बनाते हैं।     

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