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सर्पशाप योग से सन्तानहीनता-पं. योगानन्द

>> Sunday, June 6, 2010


ज्योतिष ग्रन्थ बृहत्संहिता के अध्याय तीन के श्लोक तीन में अंकित है-मुख पुच्छ विभक्तांग भुजांगमाकारमुपदिशन्त्यन्ये। अर्थात्‌ मुख और पुच्छ से विभक्त है अंग जिसका ऐसा जो सर्प का आकार है वही राहु का आकार है। 
कामरत्न ग्रन्थ अध्याय 14 श्लोक 47 में सर्प को काल कहा गया है-न पश्येद्वीक्ष्यमाणेऽपि काल दृष्टो न संशयः॥ इसमें सन्देह नहीं कि यही काल ही मृत्यु है-सर्पदंशोविषंनास्ति कालदृष्टो न संशयः॥50॥
सोलहवीं सदी के ज्योतिष ग्रन्थ मानसागरी में मानसागर ने  अध्याय चार श्लोक 10 में कहा है कि लग्नाच्च सप्तमस्थाने शनि-राहु संयुतौ सर्पेण बाधा तस्योक्ता शय्‌यायां स्वपितोपि च॥ अर्थात्‌ सातवें स्थान में यदि शनि-सूर्य व राहु की युति हो तो शय्‌या पर ही जातक की सांप काटने से मृत्यु हो जाती है।
महर्षि पाराशर ने फलित ज्योतिष में सर्पयोग की चर्चा करते हुए कहा है कि सूर्य, शनि व मंगल ये तीनों पापग्रह यदि तीन केन्द्र भावों 1,4,7,10 में हों और शुभग्रह केन्द्र से अलग भावों में हो तो सर्पयोग बनता है। बृहत्पाराशर के अनुसार सर्पयोग में उत्पन्न जातक कुटिल, क्रूर, निर्धन, दुःखी, दीन एवं पराये अन्न पर निर्भर रहता है।
भृगुसूत्रम्‌ के आठवें अध्याय के श्लोक 11 व 12 में कहा है कि पुत्र भावः सर्पशापात्‌ सुतक्षयः॥11॥ नाग प्रतिष्ठया पुत्रः प्राप्ति॥12॥ अर्थात्‌ लग्न से पांचवे भाव में राहु हो तो व्यक्ति को सर्प के शाप से पुत्र का अभाव रहता है तथा नाग की प्रतिष्ठा करने से पुत्र की प्राप्ति होती है। 
सुते राहौ भौमदृष्टे सर्पशापात्‌ सुतक्षयः अर्थात्‌ पंचम भाव में राहु हो, मंगल उसे देखता हो तो सर्प के शाप से पुत्र सन्तान नहीं होती है। 
यमे सुते चन्द्र दृष्टे सुतेशे राहुयुते सर्पशापात्‌ विपुत्रः। अर्थात्‌ पंचम भाव में शनि हो, पंचमेश राहु से युत हो तथा चन्द्रमा उसे देखता हो। सर्प के शाप से पुत्रा सन्तान की मृत्यु होती है।
सुतेशे भौमे, सुते राहौ सौम्यादृष्टे सर्पशापात्‌ विपुत्रः। अर्थात्‌ पंचमेश मंगल(कर्क या धनु लग्न) हो, पंचम भाव में राहु शुभग्रहों से दृष्ट न हो।
स्वांशे भौम, पुत्रेशे ज्ञे, पापयुते सर्पशापात्‌ विपुत्रः। पंचमेश मंगल (कर्क या धनु लग्न) में हो, मंगल स्वनवांश में हो या पंचम भाव में हो, पंचमस्थ राहु या अन्य पापग्रह हों तो सर्प के शाप से पुत्रसुख से हीन होता है।
सुतकारकयुतौ राहुतुंगेशयुते, पुत्रोशे त्रिके, सर्पशापाद् विपुत्रः। अर्थात्‌ सुतकारक गुरु मंगल से युत हो, लग्नेश राहु से युत या लग्न में राहु हो, पंचमेश त्रिक स्थानों में हो तो सर्प के शाप से पुत्रहीन होता है।
पुत्रकारक गुरु राहु से युत हो तथा पंचमभाव शनि से दृष्ट हो।
कर्क या धनु लग्न में पंचम भाव में राहु बुध से युत या दृष्ट हो।
पंचम भाव में सूर्य, मंगल, शनि य राहु हो तथा पंचमेश और लग्नेश दोनों बलहीन हों तो सन्तान सुख में बाधा आती है। 
लग्नेश राहु से युत, पंचमेश मंगल से युत तथा गुरु राहु से दृष्ट हो तो सर्पशाप से सन्तान नहीं होती है। 
राहु व गुरु की युति कुण्डली में किसी भी भाव में हो सर्प के शाप से सन्तति जीवित नहीं रहती है। 
चन्द्रमा से राहु या केतु आठवें भाव में हो तो पत्रिका को पूर्व जनमकृत शाप की समझनी चाहिए।
राहु-मंगल, राहु-गुरु, राहु-बुध, राहु-शुक्र, राहु-शनि, चन्द्र-केतु, चन्द्र-राहु, सूर्य-केतु वाली कुण्डलियां शापित मानी जाती हैं और सर्पयोग की अनिष्टता को पुष्ट करती हैं। 
फलित ज्योतिष पर अध्ययन में संलग्न विद्वानों ने देखा कि सर्प के मुख-पुच्छ अर्थात्‌ राहु-केतु के मध्य समस्त ग्रह अवस्थित हों तो जातक का जीवन अधिक कष्टयुक्त रहता है तो इसे कालसर्प योग की संज्ञा दे दी होगी। वस्तुतः कालसर्पयोग सर्पयोग का ही परिष्कृत स्वरूप है।
    यदि कुण्डली में उक्त योग किसी न किसी रूप में हों और सन्तानहीनता हो तो सर्पशाप के योग की शान्ति कराने से सन्तानहीनता दूर होती है।
उपाय
हरिवंश पुराण के नियमित पाठ से सर्पशाप या पूर्व जन्म के शाप से मुक्ति मिलती है। 
चांदी के ठोस हाथी से नित्य अपनी गलतियों की माफी मांगने से भी सर्पशाप से मुक्ति मिलती है।

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