यह ब्‍लॉग आपके लिए है।

स्‍वागत् है!

आपका इस ब्‍लॉग पर स्‍वागत है! यह ब्‍लॉग ज्‍योतिष, वास्‍तु एवं गूढ वि़द्याओं को समर्पित है। इसमें आपकी रुचि है तो यह आपका अपना ब्‍लॉग है। ज्ञानवर्धन के साथ साथ टिप्‍पणी देना न भूलें, यही हमारे परिश्रम का प्रतिफल है। आपके विचारों एवं सुझावों का स्‍वागत है।

वास्तु सम्मत पूजा कक्ष कैसा हो और कहां हो? -पं. दयानन्द शास्त्री

>> Tuesday, July 13, 2010


यदि ध्यान कक्ष या पूजा कक्ष उचित स्थान पर बनाया जावे तो यह वास्तविक दुनिया में समय के साथ व्यक्ति के मनोभावों को मूर्तरूप देने में गति प्रदान करता है। अतः घर में साधना कक्ष उचित स्थान पर बनाया जाना चाहिए ताकि भविष्य व क्षमता पर कोई प्रतिकूल प्रभाव ना आये। 
पूजा कक्ष की स्थापना ईच्चान में होनी चाहिए यदि किसी कारणवच्च ईच्चान में पूजा कक्ष नहीं बना पा रहे हैं तो दक्षिण पूर्वी (आग्नेय) या उत्तर-पच्च्िचमी क्षेत्र (वायव्य) इन दो स्थानों का छोड़कर पूजा स्थापित की जा सकती हैं। ऐसी स्थिती में ईच्चान क्षेत्र की पूर्वी दीवार पर एक भगवान की फोटो अवच्च्य लगानी चाहिए। 
जिन घरों में बैठकर पूजा करने का प्रबन्ध नहीं होता है वहां खड़े होकर पूजा की जाती हैं, ऐसी स्थिति में पूजा स्थान जमीन से साढ़े चार फीट ऊपर स्थापित किया जाना चाहिए। 
पूजा स्थल एक ऐसा स्थान हैं जहां व्यक्ति प्रार्थना करते हैं और आध्यात्मिक दुनिया के सम्पर्क में आते हैं। यह ऐसा स्थान हैं जहां भवन के निवासियों द्वारा आकांक्षाएँ, मनोकामनाएँ और लयबद्ध उच्चारण नित्य दोहराए जाते हैं।
अनेक स्थानों पर देखने में आता हैं कि बेडरूम के नीचे के कमरे को पूजा का कमरा बना दिया जाता हैं जो कि उचित स्थान नहीं हैं। सोते समय व्यक्ति में भू-ऊर्जा बढ़ जाती हैं व कॉस्मिक ऊर्जा की आवच्च्यकता नहीं होती हैं। 
हमारे शास्त्र बताते हैं कि कभी भी भगवान के स्थान के ऊपर बैठना अथवा सोना नहीं चाहिए। इसी प्रकार शयन कक्ष के अन्दर भी पूजा स्थान निर्धारित करना उचित नहीं होता हैं।  कई बार पूजा कक्ष शयन कक्ष के दरवाजे के ठीक सामने बना दिया जाता हैं जिससे उस शयन कक्ष में रहने वाले के स्वास्थ्य पर सीधा प्रभाव डालता हैं। 
ध्यान अथवा पूजा मनुष्य के जीवन में मुख्य भूमिका निभाता हैं। कई बार पूजाकक्ष सीढ़ियों की लेंडिग पर रख देते है व कभी सीढ़ियों के नीचे बना दी जाती हैं। यह दोनों ही स्थान पूजा के लिए उपयुक्त नहीं है। 
भारतीय स्थापत्य कला में यह भी बताया गया हैं कि मूर्ति की स्थापना ठोस धरातल पर की जानी चाहिए अर्थात पूजा घर का निर्धारण कभी भी बालकनी या केन्टीलीवर हिस्से में नहीं किया जाना चाहिए।
 घर में पूजा का निर्धारण करते समय शौचालय का भी ध्यान रखा जाना चाहिए। कभी भी पूजा घर शौचालय के ऊपर, नीचे अथवा शौचालय की दीवार से लगाकर नहीं बनाना चाहिए। शौचालय एक ऐसा स्थान हैं जहां से घर की ऊर्जा बहकर बाहर निकल जाती है। शौचालय के दरवाजे के सामने भी पूजा स्थान ठीक नहीं हैं।
 कई बार पूजास्थल रसोईघर में बना दिया जाता हैं ।  रसोईघर अग्नि प्रधान हैं क्षेत्र हैं अतः यह स्थान भी पूजा के लिए उपयुक्त नहीं हैं। इसी प्रकार रसोईघर के ऊपर के कमरे में या नीचे के कमरे में एवं चूल्हे वाली दीवार के पीछे पूजा का स्थान नहीं बनाया जाना चाहिए। 
गृहस्थी के घर अगर देव मन्दिर बनाया जाता हैं तो उस पर कभी भी ध्वज दंड नहीं लगाया जाना चाहिए किन्तु कलच्च लगाया जा सकता हैं। पूजा स्थान बनाते समय पूजा में दो च्चिवलिंग,तीन गणपति, तीन देवी मूर्तियां, तनी शंख, दो मुख वाले शालीग्राम, सूर्य की दो मूर्तियां नहीं रखनी चाहिए।
पूजा के लिए चल प्रतिमा ही रखना चाहिए। एक हाथ, एक पांव या अंगहीन व खण्डित प्रतिमा घर का नाच्च करती हैं अर्थात इनका उपयोग नहीं करना चाहिए। नासिकाहीन प्रतिमा धन का नाच्च करती हैं। बैठे हुए गाल वाली प्रतिमा दुखदायी होती हैं। देव पुरूषों या उनके सानिध्य में स्थापित की गई मूर्तियों को कभी त्यागना नहीं चाहिए। 
पूजा का स्थान निर्धारण करते समय विच्चेष ध्यान रखने योग्य बाद यह हैं कि यह स्थान घर के उत्तर पच्च्िचमी क्षेत्र (वायव्य) में न हो और न ही दक्षिण पूर्व (आग्नेय) में हो । यदि किसी कारणवच्च ईच्चान में पूजा स्थान नहीं बना सकते हैं तो इन दोनो स्थानों को छोड़ पूजा घर स्थापित किया जा सकता हैं। ऐसी स्थिति में ईच्चान क्षेत्र की पूर्वी दिवार पर एक भगवान की फोटो अवच्च्य लगानी चाहिए । जिन घरों में अलग से पूजा कक्ष नहीं होता वहां खड़े होकर पूजा की जा सकती हैं, ऐसी स्थिति में पूजा स्थल जमीन से लगभग साढे+ चार फिट ऊपर स्थापित किया जाना चाहिए ।
ध्यान रखें कि पूजा कक्ष के दक्षिण कोने में दरवाजा नहीं होना चाहिए और ना ही पूजा करने वाले की स्थिति दरवाजे के ठीक सामने होनी चाहिए। पूजा कक्ष में दर्पण नहीं होना चाहिए। 
घर में सुख और समृद्धि रहे इस हेतु सुबह-च्चाम घर में गायत्री मंत्र, णमोकार मंत्र या जो भी मंत्र व आरती आप सुनना पसंद करते हैं उसे सुनिये या उसका जाप कीजिए । प्रत्येक धर्म के लोग पूजा-पाठ करते समय धूप व अगरबत्ती का प्रयोग अवच्च्य करते हैं इनकी सुगन्ध से सारा वातावरण सुगंधित एवं स्वच्छ हो जाता हैं । धूप जलाने से ऊर्जा का संग्रह होता हैं जिससे नकारात्मक ऊर्जा वाली वायु शुद्ध और पवित्र हो जाती हैं जिससे वह स्थान पवित्र हो जाता हैं और मन को शांति मिलती हैं । 
मुख्य द्वार के ऊपर सिंदूर से स्वास्तिक का नौ अंगुल लम्बा तथा नौ अंगुल चौड़ा चिन्ह बनाए। घर में जहां जहां वास्तु दोष हैं वहा यह चिन्ह बनाया जा सकता हैं । 
इस प्रकार पूजा कक्ष जनित वास्तुदोष का निवारण कर शारीरिक व मानसिक रूप से ऊर्जावान्‌ होकर उन्नति की ओर अग्रसर हो सकते है।

0 comments:

आगुन्‍तक

  © Blogger templates Palm by Ourblogtemplates.com 2008

Back to TOP