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वास्तु में पांच तत्त्वों की महत्ता-पं.ज्ञानेश्‍वर

>> Monday, July 26, 2010


वास्तु में पांच तत्त्वों की महत्ता है। पांच तत्त्वों एवं दस दिशाओं के योग से वास्तु का व्यावहारिक प्रयोग करते हुए वास्तु सलाह दी जाती है। दिशाओं एवं तत्त्वों के बिना वास्तु का प्रयोग निरर्थक है। इस लेख में पांच तत्त्वों की  वास्तु में क्या महत्ता है इसकी चर्चा करेंगे।
वास्तु शब्द 'वस्तु' शब्द से बना है। अतः कोई भी योजना एवं निर्मित वस्तु 'वास्तु' केअन्तर्गत आती है। कठोपनिषद् द्वितीय वल्ली के20वें श्लोक में कहा है-अजोरजीयान्महतो महीयानात्मास्य अर्थात्‌ चाहे कोई वस्तु अत्यन्त बड़ी हो या अत्यन्त छोटी उसका निर्माण पंचमहाभूतों से ही हुआ है। इनको (वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी और आकाश) अधिक से अधिक प्राकृतिक स्रोतों से कैसे पाया जाए., यह सब वास्तु कला में निहित है।
भगवद्गीता केतीसरे अध्याय केश्लोक 27 में कहा गया है-
    प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि   सर्वशः।
    अहंकारविमूढात्मा कतहिमिति मन्यते॥ 
अर्थात्‌ समस्त कर्म प्रकृति केगुणों द्वारा ही सम्पादित होते हैं, लेकिन फिर भी अहंकार से मोहित हुए अन्तःकरण वाला पुरुष यह मान लेता है कि मैं कर्त्ता हूँ।
वास्तुशास्त्र केसिद्धान्त इस प्रकार बनाए गए हैं कि प्राकृतिक स्रोतों केद्वारा हमें सर्वाधिक ऊर्जा उपलब्ध हो सके और हम उत्तम स्वास्थ्य, सुख व शान्ति प्राप्त कर सकें।
पंचमहाभूत ब्रह्माण्ड में पाए जाते हैं और शरीर भी इनसे निर्मित है। स्वस्थ जीवन हेतु इनकेरहस्य को समझकर निज-जीवन को इसकेअनुरूप ढालना होगा तभी अव्यक्त ऊर्जाओं से लाभ उठा सकेंगे। यह कैसे प्राप्त हो इसकी चर्चा वास्तुशास्त्र में होती है। यह सर्वविदित है कि प्राकृतिक शक्तियों केअनुरूप जीवनयापन करने से स्वास्थ्य सुख-समृद्धि और शान्ति प्राप्त होती है जबकि इनकेविपरीत चलने से रोग, विभिन्न प्रकार केदुःख, निर्धनता एवं अशान्ति अपने बाहुपाश में जकड़ लेती है। 
तत्त्व पांच है-1. भूमि, 2. जल, 3. अग्नि, 4. वायु, 5. आकाश
पांचों तत्त्वों की चर्चा एक-एक करके यह बताने का प्रयास करेंगे कि पंचमहाभूतों की वास्तु में क्या महत्ता है?
भूमि तत्त्व
भूमि में कोणों, ढलाव, मार्गों, दिशाओं आदि पर विशेष ध्यान रखा जाता है। भूमि दक्षिण-पश्चिम की ओर ऊँची होनी चाहिए। पूर्व से पश्चिम की ओर लम्बा भवन सूर्य वेधी होता है और उत्तर-दक्षिण में लम्बा भवन चन्द्रवेधी होता है। चन्द्रवेधी भवन शुभ और धनकारक होता है। बाग-बगीचे हेतु सूर्यवेधी और चन्द्रवेधी दोनों भवन उपयुक्त माने गए हैं। देवालय निर्माण में सूर्य और चन्द्रवेध का विचार नहीं किया जाता है।
जल तत्त्व
जल केप्रवाह केविषय में यह ध्यान रखा जाता है कि भवन का समस्त जल उत्तर-पूर्व दिशा में गिरे। कुआँ, ट्यूबवेल, स्विमिंग पूल आदि उत्तर-पूर्व में रहना चाहिए। स्नानगृह का जल भी उत्तर-पूर्व में जाना चाहिए। उत्तर-पूर्व (ईशान) कोण जल केलिए सर्वथा उपयुक्त होता है। शुद्ध साफ जल उत्तर-पूर्व में और सैप्टिक टैंक और सीवर लाइन का प्रवाह या स्थापना उत्तर-पश्चिम में होनी चाहिए।
अग्नि तत्त्व
अग्नि की दिशा दक्षिण-पूर्व (आग्नेय कोण) है। भवन में रसोईघर, अग्नि स्थान, गीजर, विद्युत मीटर आदि इसी कोण में रखने चाहिएं। इसका दूसरा विकल्प उत्तर-पश्चिम (वायव्य) कोण भी है क्योंकि अग्नि का इस कोण से सीधा सम्पर्क है।
वायु तत्त्व
वायु की भवन में महत्ता सर्वविदित है क्योंकि इसमें वास करने वाले लोगों का जीवनाधार वायु है। यदि इनको निरन्तर शुद्ध वायु (प्राण वायु) मिलती रहे तो वे स्वस्थ रह सकते हैं। यह तभी सम्भव है जब भवन में निरन्तर शुद्ध वायु का प्रवाह होता रहे। इसी तथ्य को दृष्टिगत रखकर ही वास्तुशास्त्र का यह सिद्धान्त बना कि पूर्व दिशा एवं उत्तर दिशा का भाग सर्वाधिक खुला रहे तथा सतह नीची रहे जिससे प्रातःकाल से सूर्य का प्रकाश एवं शुद्ध वायु निरन्तर प्राप्त होती रहे। भवन में उत्तर-पूर्व दिशा में वायु केसभी साधन दरवाजों, खिड़कियों, रोशनदान, कूलर, ए.सी., रूम कूलर, बरामदा, बालकनी आदि रखने चाहिएं।
आकाश तत्त्व
   आकाश का तात्पर्य भवन में आँगन से है। भूखण्ड का मध्य भाग ब्रह्मा का स्थान माना गया है जिसे वास्तुशास्त्रानुसार खुला रखा जाता है। खुले आकाश से नैसर्गिक ऊर्जाओं का प्रभाव निर्बाध रूप से प्राप्त होता रहता है। भवन में आँगन रखने से खुला आकाश तो मिलता ही है और सूर्य की किरणें व हवा का आवागमन भी सम्यक ढंग से होता है जिससे भवन में वास करने वालों को भी लाभ होता है। दक्षिण-पश्चिम में भवन ऊँचा रखा जाता है, ऐसा करने से दोपहर बाद की सूर्य की हानिकारक रश्मियों से रक्षा होती है और वर्षा ऋतु में पश्चिम की ओर से प्रवाहित होने वाली हानिकारक वायु से भी रक्षा होती है। जिस प्रकार ब्रह्माण्ड में आकाश तत्त्व की प्रधानता है उसी प्रकार भवन में भी इसकी महत्ता को विस्मृत नहीं कर सकते हैं। तत्त्वों की महत्ता को समझकर ही वास्तु सलाह देनी चाहिए तभी लाभ होगा।

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