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उत्साह

>> Tuesday, July 27, 2010


त्वं हि मन्यो अभिभूत्योजाः स्वयंभूर्भामो अभिमातिषाहः। विश्वचर्षणिः सहुरिः सहावान्‌ अस्मास्वोजः पृतनासु धेहि॥ -ऋग्वेद 10.83.4 अथर्ववेद 4.32.34
उत्साह तुम उत्कृष्ट शक्ति युक्त, निज सामर्थ्य से रहने वाले, तेजस्वी, शत्रु-विजेता, सभी मनुष्यों में रहने वाले और विजेता हो। तुम युद्धों में हमारे अन्तः में शक्ति दो।
 उत्साह से मनुष्य में स्फूर्ति रहती है। उत्साह आन्तरिक शक्ति है जो सत्कर्मों में संलग्न रखने के साथ-साथ विनों को दूर करने का आत्मबल प्रदान करती है। यह श्रेष्ठ शक्ति स्वयंभू है। इससे अजेयता, अधृष्यता और ओजस्विता आती है जो विजेता बनाती  है। 
मन को मिलता जब उत्साह का संग । स्फूर्ति मिलती, चढ़ता विजय का रंग॥ 

आगुन्‍तक

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