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मन को कैसे समझें?-डॉ. उमेश पुरी 'ज्ञानेश्वर'

>> Thursday, July 29, 2010


मन में जो कल्पना उठती है और मिट जाती है उसका हमारे मनोमस्तिष्क पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। जो कल्पना बार-बार उठती है, वह विचार बन जाती है, जब कोई विचार बार-बार आता है और दृढ़ हो जाता है तब वह संकल्प बन जाता है। संकल्प जब हमारे आचरण में आता है तब वह कर्म बन जाता है। कर्म ही हमारा आचरण निर्धारित करते हैं और यह कर्म जब फलित होता है तो भाग्य बन जाता है कल्पना आरम्भ है तो भाग्य अन्त है।
कर्म हमारे विचारानुरूप होते हैं और विचारों का सम्बन्ध हमारे मन से होता है इस प्रकार मन इस प्रक्रिया का मूलाधार है। 
शरीर जड़ है और आत्मा चेतन। आत्मा के कारण ही शरीर में चेतनता आती है और वह क्रियाशील होता है। आत्मा स्वयं शरीर से कार्य नहीं कराती है, अपितु आत्मशक्ति से यह मन ही शरीर से कार्य कराता है।
वस्तुतः स्पष्ट है हम जो भी विचार करते हैं, वह मन की इच्छा और आदेश से करते हैं। मन को ऐसी इच्छा कराने की शक्ति आत्मा से मिलती है। जब व्यक्ति के शरीर से आत्मा निकल जाती है तो उसकी मृत्यु हो जाती है और फिर शरीर में मन भी नहीं रहता है।
मन को कार्य कराने की शक्ति आत्मा से मिलती है, इसलिए आत्मा न हो तो मन भी नहीं हो सकता। मन के बिना कोई विचार और कार्य नहीं हो सकता है। अतः आत्मा एक निराकार अत्यन्त सूक्ष्म शक्ति का नाम है जो शरीर में रहकर मन के द्वारा शरीर से कार्य कराती है।
आत्मा निराकार होने के कारण दिखाई नहीं देती है और जिन साधनों से वह कार्य लेती है वे भी दिखाई नहीं पड़ते हैं। आत्मा मन के द्वारा शरीर से कार्य लेती है, यद्यपि मन क्रियात्मक तब होता है जब उसे आत्मा निज आत्मशक्ति से उत्प्रेरित करती है। अतः आत्मा के वे साधन जिससे वह कार्य करती है, चार हैं, इन्हें अन्तःकरण चतुष्टय (क्रियात्मक मन की वृत्तियाँ) कहते हैं। ये चार साधन इस प्रकार हैं-मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त। ये ही क्रियात्मक मन की चार वृत्तियाँ हैं। 
क्रियात्मक मन की पहली वृत्ति-मन
आत्मा, इन्द्रियों और विषय के संयोग होने पर जब मन भी इनके साथ होता है तब हमें किसी प्रकार का ज्ञान होता है। जब तक इन तीनों (आत्मा, इन्द्रियों और विषय) के साथ मन का संयोग न हो तो ज्ञान भी नहीं होता है। अतः इसका होना या न होना मन का लक्षण है। मन अन्तःकरण की उस वृत्ति को कहते हैं, जो किसी भी विषय के पक्ष और विपक्ष में संकल्प-विकल्प करती है। मन सदैव गतिशील, चंचल, अत्यन्त तीव्र गति से (प्रकाश की गति से भी तेज) चलने वाला है। आत्मा की सहायता के बिना मन कार्य नहीं करता है। मन के सहयोग के बिना बुद्धि कार्य नहीं करती है। मन शरीर रूपी राज्य का राजा है। हमारा मन शरीर के जिन अंगों से ज्ञान प्राप्त करता है उन्हें ज्ञानेन्द्रियां और जिनसे कर्म करता है उन्हें कर्मेंन्द्रियां कहा जाता है। जो अंग जगत्‌ का ज्ञान कराएँ उसे इन्द्रिय कहते हैं। इन्द्रियों के वास स्थान स्थूल होने के कारण दिखते हैं, परन्तु इन्द्रियां सूक्ष्म होने के कारण दिखायी नहीं देती हैं। 
पांच ज्ञानेन्द्रियां
देखना, सुनना, सूंघना, चखना और स्पर्श का अनुभव-ये पाँचों कार्य जिन शक्तियों से होते हैं, उन्हें ज्ञानेन्द्रियाँ कहते हैं। ये पाँचों आँख, कान, नाक, जिह्ना और त्वचा से होते हैं। हमें आँख दिखायी देती है पर इसमें देखने की जो शक्ति होती है वह दिखायी नहीं देती है, इसी शक्ति को चक्षु-इन्द्रिय कहते हैं। इसी प्रकार कान दिखायी देता है पर इसमें सुनने की जो शक्ति होती है वह दिखायी नहीं देती है, इसी शक्ति को श्रोत्रन्द्रिय कहते हैं। नाक दिखायी देती है पर इसमें सूँघने की जो शक्ति होती है वह दिखायी नहीं देती है, इसी शक्ति को घ्राण-इन्द्रिय कहते हैं। जिह्ना (जीभ) दिखायी देती है पर इससे चखने की जो शक्ति होती है वह दिखायी नहीं देती है इसी शक्ति को रसन-इन्द्रिय  कहते हैं। त्वचा दिखायी देती है पर इसमें स्पर्श करने की जो शक्ति होती है वो दिखायी नहीं देती, है इसी शक्ति को स्पर्शन-इन्द्रिय कहते हैं।
प्रत्येक ज्ञान-इन्द्रिय का अपना-अपना विषय होता है। श्रोत्रन्द्रिय का शब्द, स्पर्श-इन्द्रिय का स्पर्श, चक्षु-इन्द्रिय का रूप (दृश्य), रसन-इन्द्रिय का रस (स्वाद) और घ्राण-इन्द्रिय का गन्ध। इन पाँचों ज्ञानेन्द्रियों का सम्बन्ध पाँच महाभूतों से भी होता है। श्रोत्र-इन्द्रिय का आकाश से, स्पर्शन-इन्द्रिय का वायु से, चक्षु-इन्द्रिय का अग्नि से, रसन-इन्द्रिय का जल से और घ्राण-इन्द्रिय का पृथ्वी से सम्बन्ध होता है।
पाँच कर्मेन्द्रियाँ
कर्मेंन्द्रियाँ पाँच हैं-हाथ, पैर, वाणी, लिंग और गुदा। इन पाँचों के अतिरिक्त जिह्ना (जीभ) कर्मेन्द्रिय भी है और ज्ञानेन्द्रिय भी। जिह्ना होठों और दांतों के सहयोग से बोलने का कार्य करने के कारण कर्मेन्द्रिय है और स्वाद को चखने के कारण ज्ञानेन्द्रिय भी है। प्रकृति ने जिह्ना रूपी इन्द्रिय को दो कर्त्तव्य सौंपकर यह संकेत दिया है-हम वाणी (बोलने) और रसना (स्वाद) के रूप में जीभ का प्रयोग सीमित और सन्तुलित ढंग से करें। यह तो सर्वविदित है न ज्यादा बोलना अच्छा और न ज्यादा खाना उचित है। इसी प्रकार गुप्त-इन्द्रिय (लिंग/योनि) को भी दो कर्त्तव्य सौंपे गए हैं-मूत्रविसर्जन और सन्तान उत्पत्ति। यहाँ भी प्रकृति ने यह संकेत दिया है कि गुप्त-इन्द्रिय का प्रयोग भी संयमित ढंग से हो। आप स्वयं विचारें कि जीभ से आप जितनी देर बोलते हैं उतनी देर उससे खा नहीं सकते हैं अर्थात्‌ जीभ का प्रयोग वाणी के लिए जितनी देर कर सकते है उतनी देर स्वाद के लिए नहीं कर सकते। वैसे भी जीभ को बत्तीस दांतों के मध्य में इसलिए रखा गया है कि इसका प्रयोग सन्तुलित ढंग से नहीं करेंगे तो कभी भी दांतों के बीच में आकर कट सकती है। गुप्त इन्द्रिय का प्रयोग मूत्रविसर्जन अर्थात्‌ मूत्र इन्द्रिय के रूप में अधिक नहीं होता है। यहाँ भी सन्तुलन बनाए रखना अत्यावश्यक है। हाथ से कार्य  लेते हैं, पैर से चलते हैं, लिंगों (योनि) से मूत्र विसर्जन व भोग होता है, वाणी से बोलते हैं और गुदा से मल विसर्जन करते हैं।
यह सार्वभौमिक सत्य है-'जो लोग प्रकृति के विरूद्ध आचरण करके मनमाने ढंग से निजशक्ति का अपव्यय करते हैं वे ही रोगी,  अस्थिर, निर्बल और दुःखी होते हैं।
क्रियात्मक मन की दूसरी वृत्ति-बुद्धि
अन्तःकरण की निश्चय करने वाली वृत्ति को 'बुद्धि' कहते हैं। बुद्धि का कार्य किसी भी पदार्थ का बोध करना, उचित-अनुचित को समझकर निर्णय करना है। मूर्च्छित अवस्था, निद्रा और नशे में बुद्धि निष्क्रिय रहती है। आत्मा के लिए बुद्धि मन्त्री का कार्य करती है। विनाशकाल में बुद्धि भी विपरीत हो जाती है।
क्रियात्मक मन की तीसरी वृत्ति-चित्त
अन्तःकरण की स्मरण करने वाली वृत्ति को 'चित्त' कहते हैं। चित्त ज्ञान प्राप्ति का साधन है और सदैव सक्रिय रहता है अर्थात्‌ जाग्रत और सुप्त दोनों अवस्थाओं में सक्रिय रहता है। चित्त का कार्य स्मृति के भण्डार और संस्कारों के प्रभाव को ग्रहण करके सुरक्षित रखना है। चित्त हमारे स्वभाव और व्यवहार को प्रभावित करता रहता है।
क्रियात्मक मन की चौथी वृत्ति-अहंकार
अन्तःकरण की जो वृत्ति अहं भावना से युक्त होती है, उसे 'अहंकार' कहते हैं। अहंकार का स्थूल कार्य 'मैं' की भावना है। अहंकार बुद्धि और विवेक को नष्ट करता है तथा अपने सामने दूसरे को तुच्छ समझने की भावना उत्पन्न करता है। प्रत्येक बाह्य इन्द्रिय-संवेदना के साथ क्रियात्मक मन की ये चारों वृत्तियाँ जुड़ी रहती हैं। ये चारों वृत्तियाँ क्रिया रूप एक के बाद एक इतनी शीघ्रता से आती है कि एसा लगता है मानों वे एक साथ ही हो रही हों।
वृत्तियों को जान लेने पर मन को समझना सरल है, प्रयास करके देखें।

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