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जप-रहस्य-सत्यज्ञ

>> Friday, August 6, 2010

          
     मन्त्र जाप की सफलता नाद और बिन्दु के ज्ञान पर निर्भर है। मन्त्र का जप करते-करते सूक्ष्म ध्वनि के रूप में नाद उत्पन्न होता है। हमारे अन्तर्मन में असंख्य अशुद्ध ध्वनियां हैं। इन अशुद्ध ध्वनियों को शुद्ध करना  ही मन्त्र का एकमात्र लक्ष्य है। मन्त्र के जप से धीरे-धीरे शुद्धता और  पवित्रता  का विकास होता है। जप में ध्वनि सब कुछ नहीं है। इसका लक्ष्य है-प्रकाश। 
     मन्त्र के जप से जैसे-जैसे हमारा चित्त शुद्ध ध्वनि से ओतप्रोत होने लगता है, तब अन्तर्मुखी अवस्था में धीरे-धीरे ज्योति प्रकट होने लगती है और चरम बिन्दु पर साधक को ध्वनि नहीं सुनाई देती है, वहां मात्र प्रकाश या प्रदीप्त ज्योति होती है। आप आंखें बन्द करेंगे तो अन्धकार ही दिखाई देगा जोकि अज्ञान और अविद्या का प्रतीक है। 
     मूलतः मन्त्र नादमयी है, किन्तु हम अचैतन्यता के कारण सूक्ष्म ध्वनि या नाद का अनुभव नहीं कर पाते हैं। यह बिल्कुल वैसा है जैसे कि बादलों से ढका सूर्य प्रकाश रहित प्रतीत होता है। हम जिसे मन्त्र का चैतन्य होना या जाग्रत होना कहते हैं वह मन्त्र के नाद का अनुभूत होना है। मन्त्र चेतन ही होता है वो तो हम अशुद्धता के कारण उसके प्रकाश(शक्ति) से वंचित रहते हैं। 
     अनेक जन्म के असंख्य कर्म व वासनाएं मन को दूषित कर देते हैं जिससे मन इन्द्रियों के आकर्षण  से बंधकर निरन्तर बाहर की ओर दौड़ता है। जब मन नाद से शुद्ध हो जाता है तो इन्द्रियों के आकर्षण  में लिप्त नहीं होता है और ऐसे में वह स्थिर होता है। मन की स्थिरता के अनुपात में शक्ति का विकास होता है। बिन्दु महामाया अर्थात्‌ कुंडलिनी शक्ति ही है जोकि नाद का स्रोत है। मन्त्र ध्वनि के आघात से ही बिन्दु कंपित होकर नाद को जन्म देता है और मूलाधार से उठकर ही सहस्रार में विलीन होता है। इस क्रिया में पंचभूत व चित्त शुद्धि का अपना स्थान है। जप का मुख्य उद्देश्य ज्ञानचक्षु को खोलना है जोकि भौहों के मध्य स्थित है। 
    वाचिक जप(जो बोलकर किया जाता है) से उपांशु(जो फुसफुसाकर किया जाता है) श्रेष्ठ होता है। वाचिक जप में बाहरी वायु का प्रभाव अधिक होता है जबकि उपांशु जप में यह प्रभाव कम होता है। सबसे श्रेष्ठ मानसिक जप है, लेकिन इसमें एकाग्रता अधिक चाहिए। वाचिक व उपांशु जप के समय मन्त्र की  शक्ति जो इडा-पिंगला में थी, मानसिक जप में सुषुम्ना में प्रवेश करती है। जप करते-करते साधक जब सुषुम्ना में प्रवेश पाता है तब नाद सघन हो जाने के कारण जप स्वतः होने लगता है जोकि अजपा की एक अवस्था है। गुरु जब तक कुंडलिनी में चैतन्य नहीं करता तब तक  विकास की संभावना संदिग्ध होती है। कोई विरला होता है जोकि तीव्र भक्ति से विकास पा जाते हैं। जो साधक सद्गुरु से दीक्षित नहीं होते उनका साधना मार्ग में विकास होना कठिन है। 

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