महानता-ज्ञानेश्वर
>> Monday, August 23, 2010
पर्वत शिखर पर बने मन्दिर में आने-जाने वालों का तांता लगा रहता था। यह मन्दिर बहुत लोकप्रिय था। इस मन्दिर के अन्दर विशाल प्रतिमा लगी हुई थी। उसकी मान्यता जग जाहिर थी और सभी की मनोकांक्षा उसकी उपासना से पूरी हो जाती थी।
एक दिन पर्वत शिखर पर बने मन्दिर की प्रतिमा ने सामने से मंदिर की ओर आने वाली पगडण्डी से सहानुभूति दिखाते हुए कहा-
'भद्रे! तुम कितना कष्ट उठाती हो। यहां आने वाले कितने लोगों का बोझ उठाती हो। यह सब देखकर तो मेरा जी भर उठता है। मैं सोचने लगती हूँ कि देखो इस पगडण्डी पर दिन भर गुजरकर मेरे पास तक आने वाले असंख्य लोग इसे अपने पैरों तले रौंदते हुए आते हैं। सच में तुम्हारी हिम्मत का कोई सानी नहीं है।'
प्रतिमा की बात सुनकर पगडण्डी मुस्कराते हुए बोली-
'तुम व्यर्थ में चिन्ता करती हो और सोचती हो कि मुझे कष्ट हो रहा है। सच तो यह है कि भक्त को भगवान् से मिलाने का अर्थ भगवान् से मिलना ही तो है-देवी! यह कार्य मैं प्रसन्नता सहित कर रही हूँ।'
प्रतिमा पगडण्डी की बात सुनकर उसकी महानता के आगे नतमस्तक हुए बिना न रह सकी।
सच में जो त्यागी नहीं वह महान नहीं है।
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