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जीवन जीने की शैली आकाँक्षाओं पर निर्भर करती है!

>> Saturday, April 16, 2011

                             

  
    कार्य कोई भी हो सर्वप्रथम एक विचार के रूप में मन में आकांक्षा उत्‍पन्‍न होती है कि ये करना है। कहने का तात्‍पर्य यह है कि किसी भी कार्य का आरम्भ सर्वप्रथम आकांक्षा के रूप में होता है। आकांक्षा उत्‍पन्‍न होते ही उसकी पूर्ति के लिए मस्तिष्क कल्पना द्वारा उसके लिए योजना बनाता है। बुद्धि उसकी पूर्ति की रीति बनाकर कर्म के लिए प्रेरित करती है।
     मान लो कोई व्यक्ति धनी बनने की आकांक्षा रखता है तो उसके विचार, उसकी बुद्धि और उसका मस्तिष्क उसकी पूर्ति के लिए सक्रिय हो उठेंगे। यदि उपलब्ध साधन पर्याप्त हैं तो धनार्जन की इच्छा उत्‍पन्‍न ही नहीं होगी। यदि पर्याप्‍त नहीं हैं तो व्‍यक्ति आकांक्षा के अनुरूप कर्मरत होकर धनार्जन में लग जाएगा। यदि वह दृढ्निश्‍चयी है तो धनी बनकर ही दम लेगा।
    इस प्रकार मनुष्य का स्तर और उसकी जीवन जीने की शैली उसकी आकाँक्षाओं पर निर्भर करती है। जब तक आप यह नहीं जान लेते कि आप क्या हैं, आपकी परिस्थिति  कैसी है और आप किस धरातल पर खड़े हैं, आपकी क्‍या क्षमता है? इन सबको जाने और समझे बिना महत्वाकांक्षाओं के पीछे नहीं दौड्ना चाहिए। आपको अपने सम्बन्ध में जो भी धारणा बनानी है यथार्थ के धरातल पर बनानी है, काल्पनिक धारणाएँ कदापि न रखें और न ऐसी कोई आकांक्षा रखे जो की आपकी अपनी क्षमता व प्रकृति के प्रतिकूल हो और यदि रखेंगे तो कभी भी आकांक्षा को पूर्ण नहीं कर सकेंगे।

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