आशावादी बनें!
>> Wednesday, September 7, 2016
आशावादी बनना चाहिए। आशावादिता से जीवन में आश्चर्यजनक परिवर्तन आते हैं। इसलिए आशाएं कभी भी नहीं मरनी चाहिएं। आशाएं सजीव रखेंगे तो जीवन में आगे बढ़ने का मार्ग सदैव बना रहेगा। मनोवैज्ञानिकों ने जितने भी विश्लेषण, सर्वेक्षण या शोध किए है उनका सार तत्तव यही है कि आशावान् होने से व्यक्ति सदैव स्वस्थ, प्रसन्न और सफल होता है। इसके विपरीत निराशा के अंक में जाने से वह अस्वस्थ, अप्रसन्न और असफल होता है।
यदि व्यक्ति सकारात्मक सोच रखे या सकारात्मक ढंग से सोचने लगे तो समझ लो उसने मानसिक विकृति से बचाव का टीका लगा लिया है। सकारात्मक सोच से सफलता का प्रतिशत स्वतः बढ़ जाता है।
निराशा से असफल होने का प्रतिशत ही बढ़ता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि निराश व्यक्ति सफल होने के गुण बढ़ाने की चिन्ता कदापि नहीं करते हैं। वे सदैव स्वयं व भाग्य को कोसते रहते हैं।
सफलता का प्रथम लक्षण आत्मनियन्त्रण ही है। जो करता है वह सफलता के निकट बढ़ता है।
आशावान् सदैव सकारात्मक ढंग से सोचते हैं और आत्मनियन्त्रण के साथ-साथ जीवन को भी नियंत्रिात करते हैं। ऐसे में कुछ भी गलती होने पर तेजी से उस गलती के सुधार में लग जाते हैं।
इसके विपरीत निराश व्यक्ति स्वयं को भाग्य के हाथों की कठपुतली बना बैठता है। वह मन में यह धारणा बना लेता है कि अब कुछ नहीं हो सकता है। यह सोच उसे हाथ पर हाथ धरे बैठा देती है। ऐसे में वह किसी से सलाह भी नहीं लेता है, फलस्वरूप असफलता उसे अपने पाश में बांध लेती है।
आशावान् सदैव गहन और वास्तविक सोच के पक्षधर होते हैं और उनकी यह सोच उन्हें सदैव जीवंत बनाए रखती है।
आशावादिता से इच्छाशक्ति भी प्रबल हो जाती है और आत्मविश्वास भी बढ़ जाता है जिससे सभी योजनाओं को पूर्ण करने से सम्बन्धित कार्य भली-भांति होते जाते हैं।
निराशावादी सोच के पक्षधरों का शरीर अस्वस्थ रहता है। इसके विपरीत सकारात्मक सोच के पक्षधरों को रोग सताता ही नहीं है और यदि सताता है तो जल्दी ठीक जो जाता है।
सकारात्मक व नकारात्मक विचारों का होना या न होना माता-पिता पर निर्भर करता है। माता-पिता जब अपने बच्चों को हर समय टोकते हैं, यह कहकर-यह मत करो, वह मत करो, प्रत्येक वस्तु का भय दिखाते हैं तो इससे बच्चे में अयोग्यता, भय और निराशा ही पनपती है। नकारात्मकता को दूर करना कठिन है पर असम्भव नहीं है।
सकारात्मकता से सदैव वृद्धि ही होती है। इस वृद्धि से सदैव सबकुछ अच्छा ही होता जाता है। निराश होने पर कभी नहीं घबराना चाहिए। स्वयं को आशावान् बनाना चाहिए। इसके लिए इस पर ध्यान देना चाहिए-
सफलता का प्रथम लक्षण आत्मनियन्त्रण ही है। जो करता है वह सफलता के निकट बढ़ता है।
आशावान् सदैव सकारात्मक ढंग से सोचते हैं और आत्मनियन्त्रण के साथ-साथ जीवन को भी नियंत्रिात करते हैं। ऐसे में कुछ भी गलती होने पर तेजी से उस गलती के सुधार में लग जाते हैं।
इसके विपरीत निराश व्यक्ति स्वयं को भाग्य के हाथों की कठपुतली बना बैठता है। वह मन में यह धारणा बना लेता है कि अब कुछ नहीं हो सकता है। यह सोच उसे हाथ पर हाथ धरे बैठा देती है। ऐसे में वह किसी से सलाह भी नहीं लेता है, फलस्वरूप असफलता उसे अपने पाश में बांध लेती है।
आशावान् सदैव गहन और वास्तविक सोच के पक्षधर होते हैं और उनकी यह सोच उन्हें सदैव जीवंत बनाए रखती है।
आशावादिता से इच्छाशक्ति भी प्रबल हो जाती है और आत्मविश्वास भी बढ़ जाता है जिससे सभी योजनाओं को पूर्ण करने से सम्बन्धित कार्य भली-भांति होते जाते हैं।
निराशावादी सोच के पक्षधरों का शरीर अस्वस्थ रहता है। इसके विपरीत सकारात्मक सोच के पक्षधरों को रोग सताता ही नहीं है और यदि सताता है तो जल्दी ठीक जो जाता है।
सकारात्मक व नकारात्मक विचारों का होना या न होना माता-पिता पर निर्भर करता है। माता-पिता जब अपने बच्चों को हर समय टोकते हैं, यह कहकर-यह मत करो, वह मत करो, प्रत्येक वस्तु का भय दिखाते हैं तो इससे बच्चे में अयोग्यता, भय और निराशा ही पनपती है। नकारात्मकता को दूर करना कठिन है पर असम्भव नहीं है।
सकारात्मकता से सदैव वृद्धि ही होती है। इस वृद्धि से सदैव सबकुछ अच्छा ही होता जाता है। निराश होने पर कभी नहीं घबराना चाहिए। स्वयं को आशावान् बनाना चाहिए। इसके लिए इस पर ध्यान देना चाहिए-
- कुछ भी बुरा होने पर अपने विचारों पर ध्यान देना चाहिए।
- विचार सही हैं या गलत इस पर विचार ध्यान दीजिए।
- यदि आपके विचार आपको अवनति की ओर धकेलते हैं तो उन्हें परिवर्तित कर डालिए।
ऐसा करने से आप सफलता की ओर अवश्य बढ़ेंगे। हम आपको सफलता की शतप्रतिशत गारन्टी नहीं दे रहे हैं। पर आप स्वयं को एक अवसर दीजिए, आप अपने आप कहने लगेंगे कि सच में आप सत्य कह रहे थे। सकारात्मकता सदैव सकारात्मक क्रिया व उसकी प्रतिक्रिया देती है। आप किसी व्यक्ति से या किसी से भी या पूर्ण संसार से जैसी आशा रखते हैं उसे आप वैसा ही पाते हैं। सत्य तो यह है कि स्वयं को अवसर दीजिए, इसके लिए आपको जोखिम उठाना पड़ेगा, परन्तु जोखिम उठाने व स्वयं को एक अवसर देने से पूर्व स्वयं को सकारात्मक अवश्य कर लें। इससे आप आशावान् बनेंगे और आशावान् होने से आपमें आशावादिता का प्रतिशत इतना बढ़ जाएगा कि आप सफलता ही पाएंगे।
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